Tuesday, May 29, 2012

कब टूटेंगी मजहबी दीवार!


लड़की बहुत अच्छी है लेकिन हिंदू है, लड़का बहुत अच्छा है लेकिन मुसलमान है, हम चाहकर भी इस शादी को मंजूरी नहीं दे सकते समाज क्या कहेगा। लोगों को तो बनाने के लिए बातें मिल जाएंगी, हम कैसे समाज का सामना करेंगे, क्या कहेंगे लोगों को...ये संवाद मेरे बेहद करीबी दोस्तों के अभिभावकों के हैं जिन्हें घर में अपनी पसंद जाहिर करने के बाद ये सुनने को मिली। दोनों एक-दूसरे से बेहद प्यार करते थे लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी घरवालों की रजा नहीं ले पाए। बात बहुत छोटी या समाज के दृष्टिïकोण से शायद बहुत बड़ी थी और शायद इसलिए दोंनों को एकसाथ नहीं रह पाए। ऐसे किस्से आज के नहीं है बल्कि सदियों से चलते आ रहे हैं। जहां मजहब के आगे इंसान झुकता है या फिर यह कह सकते हैं कि झुकने को मजबूर है। और मजहब की इस खाई को गहरी करने में समाज अपनी अहम भूमिका निभा रहा है।
खैर दोनों ने जी जान से कोशिश की लेकिन आखिर में परिवार के दबाव के आगे झुक गए। दोनों ने परिवार वालों की बात मानी और अपने लिए अलग-अलग रास्ते चुन लिए। उनके साथ उन रास्तों पर चलने वाले लोगों को भी उनके द्वारा किए समझौते का खामियाजा भुगतना पड़ा। उस समझौते में शायद दोनों जिंदगी को खो चुके थे, परिवारों को खुश रखने की दोनों की कोशिश ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया था।
खैर इस तरह मजहबी दीवार के कारण एक और रिश्ता टूटा, पर क्या बात यहीं खत्म हो जाती है? मेरा दिल-दिमाग तो न जाने कब तक या कह सकते हैं आज भी इसमें उलझा हुआ है, अजीब कश्मकश चलती रहती है। दो लोगों की शादी और दो परिवारों में दोस्ती होने या न होने में, समाज की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका मेरे दिमाग को झकझोर कर रख दिया। तर्कपूर्ण भी नहीं लगती बात, अगर सुलझे नजरिए से देखा जाए तो मेरी नजर में एक बात निकलकर सामने आती है कि अगर ऊपरवाले की बनाई दुनिया में वो धर्म इतनी तवज्जो देते और धर्म को इंसान और इंसानियत से ऊपर का दर्जा देते तो शायद सभी धर्र्मों के लिए सूरज, चांद, हवा, पानी सभी प्राकृतिक चीज अलग-अलग तैयार करते। यही नहीं खून का रंग भी लाल न होकर भिन्न-भिन्न धर्र्मों के लिए भिन्न होता। लेकिन ऐसा नहीं है, पूरी दुनिया में सबके खून का रंग एक है, सबके लिए एक ही सूरज-चांद निकलता है, सब प्यास बुझाने के लिए पानी ही पीते हैं, खाना सभी के लिए अनिवार्य है, तो सवाल ये उठता है कि जब ऊपरवाले ने इंसानों में कोई फर्क नहीं किया तो हम कौन होते हैं ये फर्क करने वाले? एक-दूसरे धर्म को दुश्मनी के नजर से देखने वाले? एक-दूसरे पर अंगुली उठाने वाले? और दो लोग जो अपनी मर्जी से, प्यार से एक-दूसरे के साथ रहना चाहते हैं उन्हें अलग करने वाले? ये सब भी समाज के लिए, क्या है ये समाज? कौन है जिसने समाज होने का ठेका उठाया है?
बहुत जबाव ढूंढऩे के बाद इतना तो समझ आया है कि ऊपरवाले ने तो नहीं लेकिन इंसानों के बीच इस अंतर की आग को समय-समय पर धर्म के ठेकेदारों ने हवा दी है, उस हवा ने इस आग को कभी बुझने ही नहीं दिया। वक्त बदलता है समय बदलता है लेकिन लोगों के दिमाग में धर्म के नाम पर कूड़ा-कचरा भरने से इस तरह के लोग बाज नहीं आते, आंखों में ऐसी पट्टïी चढ़ा देते हैं कि किसी को कुछ गलत लगता ही नहीं है। ऐसा नहीं है धर्म को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठते हैं या फिर धर्म की लड़ाई के चक्कर में लोग नहीं पिसते लेकिन कुछ दिन चर्चा गर्म रहने के बाद सब ठंडी हो जाती है। इतिहास उठाकर भी देखा जाए तो इसी धर्म की लड़ाई के फेर में न जाने क्या-क्या हुआ है, लोग बंटे, देश बंटा, कितना कुछ तहस-नहस हुआ। लेकिन लोगों के आंख पर चढ़ी पट्टïी किसी भी समय नहीं खुली, सभी लोग समाज (समाज पता नहीं कौन है) के डर से समाज के बनाए नियमों पर बिना तर्क दिए काम करते आ रहे हैं।
कभी कोई सामने आकर ये सवाल नहीं पूछता कि अगर दो लोगों को साथ रहने के लिए समान मजहब का प्रमाणपत्र चाहिए तो क्यों एक डॉक्टर को भी उसी मरीज का इलाज करना चाहिए जो उसके मजहब का हो, शिक्षक को भी 35 छात्रों की कक्षा में छांटकर अपने मजहब के बच्चों को अलग करना चाहिए, या फिर छोटा-बड़ा सामान खरीदते समय भी हमें देखना चाहिए कि सामान बेचने वाला अपने मजहब का है या नहीं या फिर जिस खेत में सब्जियां फल लगे हैं वो किसान और वो जमीन का मालिक अपने मजहब का है या नहीं? जब अपने रोजमर्रा की जिंदगी में एक सुईं से लेकर अपने दफ्तर के बॉस में हम मजहब नहीं देखते तो सिर्फ शादी पर आकर बात समाज के बंधन में क्यों बंधकर रह जाती है? कौन है ये समाज और क्या करना चाहता है ये? धर्म चाहे कोई भी हो उसकी शिक्षा एक ही है, हर संस्कृति खूबसूरत है और कुछ नया सिखाती है तो अच्छी बातें समझने के लिए और नया कुछ सीखने के लिए कब से पाबंधियां होने लगी? क्यूं नहीं हम इन मजहबी दीवारों को तोड़कर एक सुलझी दुनिया बना सकते हैं!

Monday, May 7, 2012

एक सॉरी ने तोड़ा रिश्ता..


नई दिल्ली। 1960 में बनी मुगले आजम में जब सलीम (दिलीप कुमार ) अनारकली (मधुबाला) से हसीन भावनाओं का इजहार कर रहे थे उस वक्त असल जिंदगी में दोनों के बीच कड़वाहट घुल चुकी थी। रिश्ता इतना बिखरा था कि दोनों एक दूसरे से बात तक करना पसंद नहीं करते थे। उस दौर की सबसे खूबसूरत प्रेम कहानी बड़े पर्दे पर जब सबके सामने आई तब दिलीप कुमार-मधुबाला का रिश्ता टूट चुका था। एक सॉरी ने अभिनेता दिलीप कुमार की जिंदगी का रूख बदला था। दोनों का रिश्ता महज एक सॉरी की वजह से हमेशा के लिए टूट गया। उस दिन के बाद से दोनों ने एक-दूसरे की तरफ मुड़कर नहीं देखा।
दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को बॉलीवुड की चुनिंदा कहानियों में गिना जाता है। इनकी प्रेम कहानी किसी फिल्म रोमांटिक स्क्रिप्‍ट की तरह शुरू हुई और खत्म भी हो गई। दिलीप कुमार की जिंदगी में जब मधुबाला आई तो वह महज 17 वर्ष की थीं। लेकिन मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान को उनका संबंध पसंद नहीं था। वो दिलीप कुमार को भी पसंद नहीं करते थे और हमेशा ही दोनों के रिश्ते के विरोध में थे। दोनों सिर्फ शूटिंग के सेट पर एक-दूसरे से मिलते थे, यही नहीं दोनों ही अपनी मुलाकातों को उनके पिता से छुपा कर रखते थे। इस तरह दोनों का रिश्ता कई साल तक चला।
बी.आर चोपड़ा की फिल्म नया दौर को लेकर हुआ कोर्ट केस प्रेस और पब्लिक में खूब उछला। इसी कोर्ट केस की वजह से 1957 में एक दूसरे से अलग हो गए। इस फिल्म के लिए 40 दिन की भोपाल की शूटिंग थी, इस फिल्म के लिए दोनों को ही साइनिंग अमाउंट दे दिया गया था। लेकिन हमेशा की तरह मधुबाला के पिता को शूटिंग के लिए उनका बाहर जाना पसंद नहीं आया। मधुबाला ने भी अपने पिता की बात मानी और फिलम छोड़ दी। इसके लिए बी.आर.चोपड़ा ने अताउल्लाह खान पर कांट्रैक्ट पूरा न करने का केस कर दिया। केस के दौरान दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को भी बहुत उछाला गया और केस के आखिरी ट्रायल के दौरान दिलीप कुमार ने कहा कि वो मधुबाला से मरते दम तक प्यार करते रहेंगे। कोर्ट में दिलीप साहब ने बी.आर.चोपड़ा की तरफ से बयान दिया। मामला खत्म हुआ लेकिन दोनों के रिश्ते में दरार आ गई।
इस केस के बाद भी दोनों ने फिल्म मुगले आजम की लेकिन उस दौरान दोनों का रिश्त इतना खराब था कि दिलीप कुमार मधुबाला से बात तक नहीं करना चाहते थे। दोनों अनारकली और सलीम का किरदार निभा रहे थे पर दोनों के बीच मोहब्बत जा रही थी।
उस केस के खत्म होने के बाद दिलीप कुमार ने मधुबाला से कहा था कि वो फिल्में छोड़ दें और उनके साथ शादी कर लें। लेकिन अपने पिता के आत्मसम्मान को लेकर परेशान मधुबाला ने भी गुस्से में उनसे कहा कि वह उनसे तभी शादी करेंगी जब वो उनके पिता से माफी मांगेंगे। लेकिन दिलीप कुमार को ये बाद नागवार गुजरी, उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। दिलीप के सॉरी के लिए इंकार को सुनकर मधुबाला ने भी उनसे शादी न करने का फैसला सुनाया और उनकी जिंदगी से चली गर्ई। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई, इसके बाद मधुबाला ने दिलीप साहब के ऊपर गुस्से और जिद में किशोर कुमार से शादी कर ली।
1950-60 के दशक में दिलीप कुमार के सितारे बुलंदी पर थे। मधुबाला से रिश्ता टूटने के बाद 1966 में उन्होंने ने सायरा बानो से शादी की। उस वक्त दिलीप साहब 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। महज 22 वर्ष की उम्र की लड़की के साथ शादी ने बॉलीवुड में मचा दिया था। दिलीप कुमार का नाम कामिनी कौशल, वैजयंती माला बाली के साथ भी जुड़ा था। उन्होंने आसमां से भी शादी की थी लेकिन वो रिश्ता ज्यादा दिन चला नहीं। दिलीप साहब को 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया और 1995 में दादा साहब फालके पुरस्कार से नवाजा गया।
- महुआ बोस

मोहब्बत मिली मंजिल नहीं


http://in.jagran.yahoo.com/cinemaaza/cinema/news/201_203_214408.htm

नई दिल्ली। देव आनंद और सुरैया की मोहब्बत किसी फिल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं है। दोनों में प्यार तो हुआ लेकिन हिंदू-मुसलिम की दीवार के कारण दोनों की मोहब्बत को मंजिल नहीं मिल पाई। प्यार को घर वालों की रजा की मुहर नहीं मिली और एक फिल्मी अंदाज में दोनों अलग हो गए। अपनी किताब रोमांसिंग विद लाइफ में भी देव आनंद ने अपने और सुरैया के रिश्ते के बारे में बताया।
40 के दशक में एक स्टाइलिश हीरो ने बॉलीवुड में अपनी पारी शुरू की। उस दौर में देव आनदं ने अन्य अभिनेताओं के बीच अपनी अलग पहचान बनाई। इसी समय अभिनेत्री सुरैया के साथ देवआनंद को फिल्मों में काम करने का मौका मिला। देव आनंद ने अपने आप को सुरैया के साथ काम के मौके को लेकर खुशनसीब माना। उस समय सुरैया का करियर देव आनंद से ज्यादा अच्छा था। इन्हीं फिल्मों के शूटिंग के दौरान देवआनंद और सुरैया का प्यार परवान चढ़ा।
सुरैया-देवआनंद ने एक साथ सात फिल्मों में काम किया। इनमें विद्या, जीत, शेर, अफसर, नीली, दो सितारे, और 1951 में सनम। सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर खूब चली। 1948 में फिल्म विद्या में गाने किनारे-किनारे चले जाएंगे.. के दौरान सुरैया को देवआनंद से प्यार हुआ। फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव पानी में पलट गई और देव आनंद ने पानी में कूदकर सुरैया को डूबने से बचाया। जीत फिल्म के सेट पर देवआनदं ने सुरैया से अपने प्यार का इजहार किया और सुरैया को तीन हजार रुपयों की हीरे की अंगूठी दी।
सुरैया की नानी को ये रिश्ता नामंजूर था, वो एक हिंदू-मुसलिम शादी के पक्ष में नहीं थीं। कहा जाता है कि उनकी नानी को फिल्म में देव आनंद के साथ दिए जाने वाले रोमांटिक दृश्यों से भी आपत्ति थी। वो दोनों की मोहब्बत का खुलकर विरोध करतीं थीं। यही नहीं बाद में उन्होंने देव आनंद का सुरैया से फोन पर बात करना भी बंद करवा दिया था। उन्होंने देवआनंद को सुरैया से दूर रहने की हिदायत और पुलिस में शिकायत दर्ज करने की धमकी तक दे डाली। नतीजतन दोनों ने अलग होने का फैसला किया। इसके बाद दोनों ने एक भी फिल्मों में साथ काम नहीं किया और ताउम्र सुरैया ने किसी से शादी नहीं की। बड़े पर्दे पर दोनों की आखिरी फिल्म दो सितारे थी। कहा जाता है कि दोनों के अलग होने के फैसले के बाद सुरैया ने देव आनंद की दी हुई अंगूठी को समुद्र के किनारे बैठकर समुद्र में फेंक दिया। देव आनदं ने कभी भी अपने और सुरैये के रिश्ते को किसी से छुपाया नहीं।
यही नहीं अपनी किताब रोमांसिंग विद लाइफ में देव आनंद ने अपने और सुरैया के रिश्ते के बारे में भी बताया और यह बात भी लिखी कि सुरैया के साथ अगर जिंदगी होती तो वो कुछ और होती। सुरैया के जाने के बाद वो दौर देवआनंद के लिए मुश्किल था और वो इस दुख से उबर ही नहीं पा रहे थे। उन्होंने खुद को काम में बहुत व्यस्त किया लेकिन उनका दिल डूबता जा रहा था। आखिरीकार एक दिन वो अपने भाई चेतन आनंद के कंधे पर फूट-फूटकर रो पड़े। चेतन अपने भाई और सुरैया के रिश्ते के बारे में जानते थे। उन्होंने देव आनंद को संभाला और समझाया कि सुरैया के साथ बिताई जिंदगी तुम्हें और मजबूत बनाएगा, तुम जिंदगी के बड़ी तकलीफों का सामना कर पाओगे।
-महुआ बोस