Tuesday, August 7, 2012

कहां गया वो रविवार?


छुट्टïी का दिन था, देर से सोकर उठना, सारे काम समय बीत जाने के बाद करना, सुस्सताना, बस यही सब चलता है पूरे दिन। इस छुट्टïी भी कुछ यही सब सब चल रहा था, हाथ में चाय का कप लिए बालकोनी में खड़ी हुई, घर के सामने बने पार्क में एक दो बच्चे ही खेलते नजर आए। वहीं बैठकर चाय पीने लगी और दुनिया की खबर के लिए अखबार पर नजर फेरी। तभी फोन बजा, दूसरी तरफ मेरी बहन थी, बातचीत हुई और मैने उन्हें अगले दिन यानि रविवार को घर आने कहा। लेकिन वो बोलीं नहीं आ पाऊंगी कल मिष्टïी (उनकी बेटी) का मैथ्स क्लास है, इस क्लास में उसका अभी एडमिशन करवाया है, इसमें सवाल जल्दी हल करने की तकनीक बताई जाती है, इससे बच्चे को गणित से डर नहीं लगता और उसकी एकाग्रता भी बढ़ती है। मै उनकी बात चुपचाप सुन रही थी। फिर मैने कहा आज आ जाओ कल चली जाना दोपहर तक, उसकी क्लास तो शाम को है। लेकिन फिर उसने जवाब में ना कहा और बोली उसकी म्यूजिक क्लास है और उसमें छुट्टïी नहीं करवा सकती, म्यूजिक की परीक्षा भी पास में है, इसके अलावा अगले सप्ताह स्कूल में म्यूजिक की प्रतियोगिता है, उसकी भी तैयारी करनी है। इस तरह थोड़ी देर बातचीत हुई फिर मैने फोन रख दिया। 
जेहन में एक ही ख्याल आ रहा था बच्चों का बचपन कार्टून और खेल से इतर पढ़ाई, प्रतियोगिता, हॉबी क्लास तक रह गया है। क्या इन्हें हमारे बचपन की तरह रविवार का इंतजार नहीं होता होगा? क्या दिन हुआ करते थे बचपन के और क्या रविवार हुआ करता था। रविवार तो आज भी आता है लेकिन दीदी के मुंह से उनकी बेटी का रविवार सुनकर अचानक ही अपने बचपन के रविवार के दिन याद आने लगे। पूरे सप्ताह टीवी में आने वाला धारावाहिक श्रीकृष्ण, रामायण देखने का इंतजार होता था, कॉमेडी धारावाहिकों में देख भाई देख जैसे धारावाहिक हंसाते थे। सुबह रविवार का खास नाश्ता होता था, पापा के साथ बगीचे की सफाई होती थी, वो फूलों की जानकारी देते थे और हम उत्सुकता से वो बातें सुनते थे। यही नहीं आस पड़ोस के घर के आंगन में बच्चों के साथ विभिन्न खेलों में पूरा दिन निकलता था। 
इस तरह खेलते हुए दिन चढ़ता और मां के बुलाने पर दोपहर का खाना होता लेकिन किसी तरह खाना खत्म करके फिर बाहर जाने की हलचल मन में होती थी। धूप में जाने की मनाही होने पर घर पर ही सबको बुलाकर एक कमरे में लूडो, कैरम खेला जाता था। यही नहीं पास की किताबों की दुकान से चंपक, नंदन, चाचा चौधरी कॉमिक्स लाकर छुट्टïी का एक दिन गुजर जाता था। शाम को फिर अपने साथ के बच्चों के साथ बाहर खेलने जाना, साइकिल चलाना और घर के बनाए एक नियम के मुताबिक स्ट्रीट लाइट जलने से पहले घर घुसने की बात दिमाग में रखना। वो बात हमेशा याद रहती कि स्ट्रीट लाइट जलने तक घर लौटना है, उससे देर हुई तो डांट पड़ती। 
क्या खास होते थे वो रविवार, क्या खास होते थे वो दिन। आज के बच्चों का बचपन वक्त की गति के साथ तेज चल रहा है। बचपन के उन खेलों की जगह उनकी विभिन्न विषयों की ट्यूशन क्लास ने ले ली है, बाहर जाकर खेलने की बजाए वो घर पर अपने प्रोजेक्ट पूरे करते हैं। पढ़ाई और प्रतियोगिताओं का दबाव हमेशा उनके साथ चलता है। हर चीज में बेस्ट होने की कोशिश में शायद कुछ खो रहे हैं ये बच्चे। क्या आज के बच्चों को रविवार का इंतजार होता होगा? या फिर उन्हें रविवार के नाम पर अपनी मैथ्स क्लास या हॉबी क्लास का टाइमटेबल याद आता है और खेल के नाम पर कंप्यूटर के गेम...

Tuesday, May 29, 2012

कब टूटेंगी मजहबी दीवार!


लड़की बहुत अच्छी है लेकिन हिंदू है, लड़का बहुत अच्छा है लेकिन मुसलमान है, हम चाहकर भी इस शादी को मंजूरी नहीं दे सकते समाज क्या कहेगा। लोगों को तो बनाने के लिए बातें मिल जाएंगी, हम कैसे समाज का सामना करेंगे, क्या कहेंगे लोगों को...ये संवाद मेरे बेहद करीबी दोस्तों के अभिभावकों के हैं जिन्हें घर में अपनी पसंद जाहिर करने के बाद ये सुनने को मिली। दोनों एक-दूसरे से बेहद प्यार करते थे लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी घरवालों की रजा नहीं ले पाए। बात बहुत छोटी या समाज के दृष्टिïकोण से शायद बहुत बड़ी थी और शायद इसलिए दोंनों को एकसाथ नहीं रह पाए। ऐसे किस्से आज के नहीं है बल्कि सदियों से चलते आ रहे हैं। जहां मजहब के आगे इंसान झुकता है या फिर यह कह सकते हैं कि झुकने को मजबूर है। और मजहब की इस खाई को गहरी करने में समाज अपनी अहम भूमिका निभा रहा है।
खैर दोनों ने जी जान से कोशिश की लेकिन आखिर में परिवार के दबाव के आगे झुक गए। दोनों ने परिवार वालों की बात मानी और अपने लिए अलग-अलग रास्ते चुन लिए। उनके साथ उन रास्तों पर चलने वाले लोगों को भी उनके द्वारा किए समझौते का खामियाजा भुगतना पड़ा। उस समझौते में शायद दोनों जिंदगी को खो चुके थे, परिवारों को खुश रखने की दोनों की कोशिश ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया था।
खैर इस तरह मजहबी दीवार के कारण एक और रिश्ता टूटा, पर क्या बात यहीं खत्म हो जाती है? मेरा दिल-दिमाग तो न जाने कब तक या कह सकते हैं आज भी इसमें उलझा हुआ है, अजीब कश्मकश चलती रहती है। दो लोगों की शादी और दो परिवारों में दोस्ती होने या न होने में, समाज की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका मेरे दिमाग को झकझोर कर रख दिया। तर्कपूर्ण भी नहीं लगती बात, अगर सुलझे नजरिए से देखा जाए तो मेरी नजर में एक बात निकलकर सामने आती है कि अगर ऊपरवाले की बनाई दुनिया में वो धर्म इतनी तवज्जो देते और धर्म को इंसान और इंसानियत से ऊपर का दर्जा देते तो शायद सभी धर्र्मों के लिए सूरज, चांद, हवा, पानी सभी प्राकृतिक चीज अलग-अलग तैयार करते। यही नहीं खून का रंग भी लाल न होकर भिन्न-भिन्न धर्र्मों के लिए भिन्न होता। लेकिन ऐसा नहीं है, पूरी दुनिया में सबके खून का रंग एक है, सबके लिए एक ही सूरज-चांद निकलता है, सब प्यास बुझाने के लिए पानी ही पीते हैं, खाना सभी के लिए अनिवार्य है, तो सवाल ये उठता है कि जब ऊपरवाले ने इंसानों में कोई फर्क नहीं किया तो हम कौन होते हैं ये फर्क करने वाले? एक-दूसरे धर्म को दुश्मनी के नजर से देखने वाले? एक-दूसरे पर अंगुली उठाने वाले? और दो लोग जो अपनी मर्जी से, प्यार से एक-दूसरे के साथ रहना चाहते हैं उन्हें अलग करने वाले? ये सब भी समाज के लिए, क्या है ये समाज? कौन है जिसने समाज होने का ठेका उठाया है?
बहुत जबाव ढूंढऩे के बाद इतना तो समझ आया है कि ऊपरवाले ने तो नहीं लेकिन इंसानों के बीच इस अंतर की आग को समय-समय पर धर्म के ठेकेदारों ने हवा दी है, उस हवा ने इस आग को कभी बुझने ही नहीं दिया। वक्त बदलता है समय बदलता है लेकिन लोगों के दिमाग में धर्म के नाम पर कूड़ा-कचरा भरने से इस तरह के लोग बाज नहीं आते, आंखों में ऐसी पट्टïी चढ़ा देते हैं कि किसी को कुछ गलत लगता ही नहीं है। ऐसा नहीं है धर्म को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठते हैं या फिर धर्म की लड़ाई के चक्कर में लोग नहीं पिसते लेकिन कुछ दिन चर्चा गर्म रहने के बाद सब ठंडी हो जाती है। इतिहास उठाकर भी देखा जाए तो इसी धर्म की लड़ाई के फेर में न जाने क्या-क्या हुआ है, लोग बंटे, देश बंटा, कितना कुछ तहस-नहस हुआ। लेकिन लोगों के आंख पर चढ़ी पट्टïी किसी भी समय नहीं खुली, सभी लोग समाज (समाज पता नहीं कौन है) के डर से समाज के बनाए नियमों पर बिना तर्क दिए काम करते आ रहे हैं।
कभी कोई सामने आकर ये सवाल नहीं पूछता कि अगर दो लोगों को साथ रहने के लिए समान मजहब का प्रमाणपत्र चाहिए तो क्यों एक डॉक्टर को भी उसी मरीज का इलाज करना चाहिए जो उसके मजहब का हो, शिक्षक को भी 35 छात्रों की कक्षा में छांटकर अपने मजहब के बच्चों को अलग करना चाहिए, या फिर छोटा-बड़ा सामान खरीदते समय भी हमें देखना चाहिए कि सामान बेचने वाला अपने मजहब का है या नहीं या फिर जिस खेत में सब्जियां फल लगे हैं वो किसान और वो जमीन का मालिक अपने मजहब का है या नहीं? जब अपने रोजमर्रा की जिंदगी में एक सुईं से लेकर अपने दफ्तर के बॉस में हम मजहब नहीं देखते तो सिर्फ शादी पर आकर बात समाज के बंधन में क्यों बंधकर रह जाती है? कौन है ये समाज और क्या करना चाहता है ये? धर्म चाहे कोई भी हो उसकी शिक्षा एक ही है, हर संस्कृति खूबसूरत है और कुछ नया सिखाती है तो अच्छी बातें समझने के लिए और नया कुछ सीखने के लिए कब से पाबंधियां होने लगी? क्यूं नहीं हम इन मजहबी दीवारों को तोड़कर एक सुलझी दुनिया बना सकते हैं!

Monday, May 7, 2012

एक सॉरी ने तोड़ा रिश्ता..


नई दिल्ली। 1960 में बनी मुगले आजम में जब सलीम (दिलीप कुमार ) अनारकली (मधुबाला) से हसीन भावनाओं का इजहार कर रहे थे उस वक्त असल जिंदगी में दोनों के बीच कड़वाहट घुल चुकी थी। रिश्ता इतना बिखरा था कि दोनों एक दूसरे से बात तक करना पसंद नहीं करते थे। उस दौर की सबसे खूबसूरत प्रेम कहानी बड़े पर्दे पर जब सबके सामने आई तब दिलीप कुमार-मधुबाला का रिश्ता टूट चुका था। एक सॉरी ने अभिनेता दिलीप कुमार की जिंदगी का रूख बदला था। दोनों का रिश्ता महज एक सॉरी की वजह से हमेशा के लिए टूट गया। उस दिन के बाद से दोनों ने एक-दूसरे की तरफ मुड़कर नहीं देखा।
दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को बॉलीवुड की चुनिंदा कहानियों में गिना जाता है। इनकी प्रेम कहानी किसी फिल्म रोमांटिक स्क्रिप्‍ट की तरह शुरू हुई और खत्म भी हो गई। दिलीप कुमार की जिंदगी में जब मधुबाला आई तो वह महज 17 वर्ष की थीं। लेकिन मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान को उनका संबंध पसंद नहीं था। वो दिलीप कुमार को भी पसंद नहीं करते थे और हमेशा ही दोनों के रिश्ते के विरोध में थे। दोनों सिर्फ शूटिंग के सेट पर एक-दूसरे से मिलते थे, यही नहीं दोनों ही अपनी मुलाकातों को उनके पिता से छुपा कर रखते थे। इस तरह दोनों का रिश्ता कई साल तक चला।
बी.आर चोपड़ा की फिल्म नया दौर को लेकर हुआ कोर्ट केस प्रेस और पब्लिक में खूब उछला। इसी कोर्ट केस की वजह से 1957 में एक दूसरे से अलग हो गए। इस फिल्म के लिए 40 दिन की भोपाल की शूटिंग थी, इस फिल्म के लिए दोनों को ही साइनिंग अमाउंट दे दिया गया था। लेकिन हमेशा की तरह मधुबाला के पिता को शूटिंग के लिए उनका बाहर जाना पसंद नहीं आया। मधुबाला ने भी अपने पिता की बात मानी और फिलम छोड़ दी। इसके लिए बी.आर.चोपड़ा ने अताउल्लाह खान पर कांट्रैक्ट पूरा न करने का केस कर दिया। केस के दौरान दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को भी बहुत उछाला गया और केस के आखिरी ट्रायल के दौरान दिलीप कुमार ने कहा कि वो मधुबाला से मरते दम तक प्यार करते रहेंगे। कोर्ट में दिलीप साहब ने बी.आर.चोपड़ा की तरफ से बयान दिया। मामला खत्म हुआ लेकिन दोनों के रिश्ते में दरार आ गई।
इस केस के बाद भी दोनों ने फिल्म मुगले आजम की लेकिन उस दौरान दोनों का रिश्त इतना खराब था कि दिलीप कुमार मधुबाला से बात तक नहीं करना चाहते थे। दोनों अनारकली और सलीम का किरदार निभा रहे थे पर दोनों के बीच मोहब्बत जा रही थी।
उस केस के खत्म होने के बाद दिलीप कुमार ने मधुबाला से कहा था कि वो फिल्में छोड़ दें और उनके साथ शादी कर लें। लेकिन अपने पिता के आत्मसम्मान को लेकर परेशान मधुबाला ने भी गुस्से में उनसे कहा कि वह उनसे तभी शादी करेंगी जब वो उनके पिता से माफी मांगेंगे। लेकिन दिलीप कुमार को ये बाद नागवार गुजरी, उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। दिलीप के सॉरी के लिए इंकार को सुनकर मधुबाला ने भी उनसे शादी न करने का फैसला सुनाया और उनकी जिंदगी से चली गर्ई। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई, इसके बाद मधुबाला ने दिलीप साहब के ऊपर गुस्से और जिद में किशोर कुमार से शादी कर ली।
1950-60 के दशक में दिलीप कुमार के सितारे बुलंदी पर थे। मधुबाला से रिश्ता टूटने के बाद 1966 में उन्होंने ने सायरा बानो से शादी की। उस वक्त दिलीप साहब 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। महज 22 वर्ष की उम्र की लड़की के साथ शादी ने बॉलीवुड में मचा दिया था। दिलीप कुमार का नाम कामिनी कौशल, वैजयंती माला बाली के साथ भी जुड़ा था। उन्होंने आसमां से भी शादी की थी लेकिन वो रिश्ता ज्यादा दिन चला नहीं। दिलीप साहब को 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया और 1995 में दादा साहब फालके पुरस्कार से नवाजा गया।
- महुआ बोस

मोहब्बत मिली मंजिल नहीं


http://in.jagran.yahoo.com/cinemaaza/cinema/news/201_203_214408.htm

नई दिल्ली। देव आनंद और सुरैया की मोहब्बत किसी फिल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं है। दोनों में प्यार तो हुआ लेकिन हिंदू-मुसलिम की दीवार के कारण दोनों की मोहब्बत को मंजिल नहीं मिल पाई। प्यार को घर वालों की रजा की मुहर नहीं मिली और एक फिल्मी अंदाज में दोनों अलग हो गए। अपनी किताब रोमांसिंग विद लाइफ में भी देव आनंद ने अपने और सुरैया के रिश्ते के बारे में बताया।
40 के दशक में एक स्टाइलिश हीरो ने बॉलीवुड में अपनी पारी शुरू की। उस दौर में देव आनदं ने अन्य अभिनेताओं के बीच अपनी अलग पहचान बनाई। इसी समय अभिनेत्री सुरैया के साथ देवआनंद को फिल्मों में काम करने का मौका मिला। देव आनंद ने अपने आप को सुरैया के साथ काम के मौके को लेकर खुशनसीब माना। उस समय सुरैया का करियर देव आनंद से ज्यादा अच्छा था। इन्हीं फिल्मों के शूटिंग के दौरान देवआनंद और सुरैया का प्यार परवान चढ़ा।
सुरैया-देवआनंद ने एक साथ सात फिल्मों में काम किया। इनमें विद्या, जीत, शेर, अफसर, नीली, दो सितारे, और 1951 में सनम। सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर खूब चली। 1948 में फिल्म विद्या में गाने किनारे-किनारे चले जाएंगे.. के दौरान सुरैया को देवआनंद से प्यार हुआ। फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव पानी में पलट गई और देव आनंद ने पानी में कूदकर सुरैया को डूबने से बचाया। जीत फिल्म के सेट पर देवआनदं ने सुरैया से अपने प्यार का इजहार किया और सुरैया को तीन हजार रुपयों की हीरे की अंगूठी दी।
सुरैया की नानी को ये रिश्ता नामंजूर था, वो एक हिंदू-मुसलिम शादी के पक्ष में नहीं थीं। कहा जाता है कि उनकी नानी को फिल्म में देव आनंद के साथ दिए जाने वाले रोमांटिक दृश्यों से भी आपत्ति थी। वो दोनों की मोहब्बत का खुलकर विरोध करतीं थीं। यही नहीं बाद में उन्होंने देव आनंद का सुरैया से फोन पर बात करना भी बंद करवा दिया था। उन्होंने देवआनंद को सुरैया से दूर रहने की हिदायत और पुलिस में शिकायत दर्ज करने की धमकी तक दे डाली। नतीजतन दोनों ने अलग होने का फैसला किया। इसके बाद दोनों ने एक भी फिल्मों में साथ काम नहीं किया और ताउम्र सुरैया ने किसी से शादी नहीं की। बड़े पर्दे पर दोनों की आखिरी फिल्म दो सितारे थी। कहा जाता है कि दोनों के अलग होने के फैसले के बाद सुरैया ने देव आनंद की दी हुई अंगूठी को समुद्र के किनारे बैठकर समुद्र में फेंक दिया। देव आनदं ने कभी भी अपने और सुरैये के रिश्ते को किसी से छुपाया नहीं।
यही नहीं अपनी किताब रोमांसिंग विद लाइफ में देव आनंद ने अपने और सुरैया के रिश्ते के बारे में भी बताया और यह बात भी लिखी कि सुरैया के साथ अगर जिंदगी होती तो वो कुछ और होती। सुरैया के जाने के बाद वो दौर देवआनंद के लिए मुश्किल था और वो इस दुख से उबर ही नहीं पा रहे थे। उन्होंने खुद को काम में बहुत व्यस्त किया लेकिन उनका दिल डूबता जा रहा था। आखिरीकार एक दिन वो अपने भाई चेतन आनंद के कंधे पर फूट-फूटकर रो पड़े। चेतन अपने भाई और सुरैया के रिश्ते के बारे में जानते थे। उन्होंने देव आनंद को संभाला और समझाया कि सुरैया के साथ बिताई जिंदगी तुम्हें और मजबूत बनाएगा, तुम जिंदगी के बड़ी तकलीफों का सामना कर पाओगे।
-महुआ बोस

Friday, April 6, 2012

सुकून का ठिकाना

checkout me @ jansatta's column DUNIA MERE AAGE

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/15952-2012-04-06-05-11-59



महुआ बोस 

जनसत्ता 6 अप्रैल, 2012: शहरों-महानगरों की आपाधापी भरी जिंदगी में लगता है जैसे हमने अपना सुकून बेच दिया है। न अपने लिए वक्त है, न ही अपनों के लिए। इसकी व्यस्तता और चकाचौंध में सब जैसे खोते जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि काश, दिमाग में आंकड़े भर देने वाला कोई तार लगाया जा सके, जिसके बाद सब बातें खुद-ब-खुद कंप्यूटर में चली जाएं। पढ़ने-लिखने की चीजें तार से जुड़ जाने के बाद सीधे दिमाग में और दिमाग से सीधे कंप्यूटर में आ जाएंगी। परिवार, बातचीत, शौक- सब कुछ ही स्वचालित हो जाएगा। इससे कम से कम इस बात का अफसोस तो नहीं होगा कि सुकून के सिवा सब कुछ है।
सब कॅरिअर में आगे बढ़ रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, लेकिन पूरे दिन कहीं काम करने के बाद जब घर लौटते हैं तो वहां सुकून नहीं है। घर में बैठ कर परिवार वालों के साथ खाना खाए हुए न जाने कितने दिन हो जाते हैं। कई ऐसे दोस्त हैं जो दूसरे शहरों से आकर यहां रहते हैं और परिवार से मिले महीनों या साल तक यों ही गुजर जाते हैं। अमूमन हर त्योहार में घर वालों के साथ नहीं रह पाने की कसक अक्सर चेहरे पर दिख जाती है। त्योहार तो होता है, लेकिन अपनेपन की कमी स्वाभाविक रूप से खलती है। मेरा खयाल है कि नौकरी, पैसा और शहरी जिंदगी में फंसे सब लोग सुकून तलाशते हैं। सबको जेहनी सुकून चाहिए, लेकिन ‘मेट्रो’ कहे जाने वाले शहरों में रहन-सहन का जो ढांचा, कामकाज की व्यस्तताएं और इन सबके बीच चुपचाप पलता तनाव का माहौल बन चुका है, उसमें यह मिल पाना अब शायद मुमकिन ही नहीं है।
कुछ समय पहले हम एक दिन अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे। भैया पूरे दिन दफ्तर में काम करने के बाद घर आए, हम लोगों से बातचीत की, सबकी खैरियत ली और फिर पास ही सोते हुए अपने बच्चे को प्यार किया। फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले- ‘पूरे दिन के बाद घर आने पर भी बच्चे को खेलते हुए नहीं देख पाता। बहुत मुश्किल से अगर दिन में फोन पर बात होती है तो पापा-पापा करके दो-चार बात करता है। सुबह घर से निकलता हूं तो यह सोता रहता है और रात को घर में आता हूं तब तक सो जाता है। रविवार को ही इससे थोड़ा ठीक से मिल पाता हूं। उस दिन इसकी खुशी और उत्साह का ठिकाना नहीं होता, जैसे 
पूरे हफ्ते पापा से छुट्टी के दिन मिलने का इंतजार करता हो। कभी किसी सप्ताह अगर दफ्तर के काम से कहीं बाहर जाना पड़ता है तो रविवार या कोई छुट्टी का दिन भी नहीं मिल पाता है।’ 
उनकी बातें सुन एक अजीब-सी सिहरन हुई। पैसा कमाने और जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए हम लोग जिंदगी के कितने खास पलों को रोज खो रहे हैं। उनकी बातों से भी लगा कि जैसे सब कुछ तो अच्छा कर रहे हैं, लेकिन जो बच्चे के बड़े होने के सबसे खूबसूरत पल हैं, उसे महसूस कर पाने से वंचित हैं।
एक दिन और कुछ ऐसा ही लगा मुझे, जब मैं एक छोटी-सी घटना के बारे में कुछ लिखना चाह रही थी। लेकिन घड़ी के साथ चलने वाली जिंदगी में थोड़ा-सा वक्त खुद को नहीं दे पाई और उस घटना को कागज पर उतारने के बारे में सिर्फ सोचती रह गई। हुआ कुछ यों था कि उस सुबह दफ्तर जाते हुए जब आॅटो नोएडा में एक चौराहे की लाल बत्ती पर रुका तो एक छोटे बच्चे ने पास आकर हाथ फैला दिया। एक तरह से उससे पीछा छुड़ाने की गरज से मैंने एक रुपए का सिक्का उसे दे दिया। उस सिक्के को मुट्ठी में बंद करके उसके चेहरे पर जो मुस्कराहट आई, वह मुझे आज भी याद है। मानो, वह एक रुपया उसकी जिंदगी बदल देगा, या फिर उसने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे कार्यक्रम में पंद्रहवें सवाल का जवाब दे दिया हो। उस सिक्के को देने से पहले मुझे अंदाजा भी नहीं था कि वह उसे इतनी खुशी दे जाएगा।
उस बच्चे की यह वही मुस्कान थी जो मैं कागज पर उतार लेना चाहती थी, यह जानते हुए भी कि वह सिक्का उसकी जिंदगी में रत्ती भर भी बदलाव करने में मददगार साबित नहीं हो सकता था। लेकिन अब तक नाकाम रही। दरअसल, हम लोग इस जिंदगी में ऐसे उलझ गए हैं, जिसमें कुछ पल भी सुकून के नहीं हैं। सब कुछ होते हुए भी मानसिक राहत नहीं है। कह सकते हैं कि इसे पाने के लिए हम न जाने कहां-कहां और कैसे दौड़ते-भागते फिरते हैं। लेकिन हमें कहां पता होता है कि वह कहां मिलेगा! नतीजा, एक अजीब-सी झुंझलाहट और खीझ...। सवाल है कि आखिर कहां है सुकून का वह ठिकाना। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह हमारे आसपास ही छिपा है, लेकिन हम खुद में इतने सिमटे हैं या चकाचौंध भरी रोशनी में इतने गुम हैं कि उसे हासिल नहीं कर पाते!

Sunday, January 29, 2012

राजा की तलाश...

Checkout my TRAVELOGUE here :
http://in.jagran.yahoo.com/news/travel/general/16_36_566.html

सरिसका जाने के लिए जयपुर से अलवर जब हमारी कार जा रही थी तो सबके मन में सिर्फ एक ही बात थी कि बाघ दिखेंगे या नहीं, इसके पहले जंगल सफारी नहीं की थी, चिडिय़ाघर तो देखे हैं लेकिन खुले बीहड़ जंगल में जानवर किस तरह घूमते फिरते हैं ये नजारा शहरों में रहकर देखने को कभी नहीं मिला। जैसे-जैसे सरिसका तक पहुंचने का रास्ता कम हो रहा था हम सब का उत्साह उतना ही बढ़ रहा था। सरिसका तक पहुंचने से पहले का रास्ता ही जंगल वाला हो गया था, बीच-बीच में हिरण, नील गाय नजर आती, जंगली सूअर भी मस्त होकर यहां वहां घूमते दिखे।

हम सब बस अब जल्दी से जल्दी सरिसका के अंदर पहुंचना चाहते थे। दोपहर के एक बजे की हमारी बुकिंग थी, पहुंचकर हमने अपनी ऑनलाइन एंट्र्री दिखाई और जीप ली। जीप मिलने के पहले तक लग रहा था कि शायद बंद जीप मिलेगी लेकिन महिंद्रा की खुली हुई जीप देखकर हम सबके चहरे खिल गए। सब जीप में सवार हुए और सरिसका के अंदर चले। हसरिसका के गेट से अंदर जीप जैसे ही घुसी लगा कि दूसरी ही दुनिया में पहुंच गए हैं। जंगल के रास्ते पर हमारी जीप बढऩे लगी और हम सब कैमरे इन नजारों को कैद करने लगे। बीच-बीच में ही ड्राइवर से एक ही सवाल कि बाघ कब दिखेगा? हमारी जीप जोन 3 की तरफ से जा रही थी। ड्राइवर ने बताया कि यहां तीन जोन हैं, इस जोन में वह जानबूझ कर लेकर आया है क्योंकि हो बाघ का लोकेशन इधर होने की बात थी। जैसे-जैसे घने जंगल की तरफ जीप बढ़ रही थी बाघ देखने की चाह और बढ़ रही थी। ऊपर से ड्राइवर के किस्से कि कभी तो बाघ फौरन दिख जाता है और कई बार दस बार जंगल सफारी करने पर भी बाघ के दर्शन नहीं हो पाते हैं। ड्राइवर ने बताया कि सरिसका में पांच बाघ हैं जिनमें से हाल ही में एक मर गया है। इन बाघों के नाम एसटी 1, 2, 3, 4, 5 हैं। उसने कहा कि सुबह से जंगल के किसी भी जोन में बाघ नहीं दिखा है तो हो सकता है आपको दिखे। ये बात सुनते ही हम सबके चेहरों पर रौनक आ गई। अचानक छोटे से पगडंडी नुमा चढ़ाई वाले रास्ते पर जीप चढ़ी , रास्ता एकदम खड़ा। फिर ड्र्राइवर ने हिदायत दी कि सब बैठ जाएं और हिले नहीं, अचानक जब ऊंचाई पर जाकर गाड़ी रूकी तो घाटियों का सुंदर नजारा देख सब मुग्ध हो गए। थोड़ी देर रूकने के बाद फिर उसी तेजी के साथ जीप नीचे उतरी, थोड़ी देर के लिए तो सबकी सांसे ही रूक गई थी। अब हम जंगल के बीच में पहुंच चुके थे। ड्राइवर ने अचानक कार रोकी और हमें नीचे जमीन की तरफ इशारा किया और बताया कि यहां से बाघ गुजरा होगा क्योंकि पैरों के निशान हैं फिर जीप को लेकर तेजी से घाटी के पास के रास्ते की ओर बढने लगा। इस बीच हमने खुले जंगल में खेलते, स्वतंत्र होकर घूमते जानवरों को देखा। वाकई में खुले जंगलों में जानवर अलग ही दिखते हैं और इन्हीं जानवरों के चेहरे चिडिय़ा घर एकदम मुरझाए नजर आते हैं। लेकिन जीप से उतर नहीं पाए, जीप से उतरकर फोटो खींचने की मनाही थी। ड्र्राइवर से मैने कौतुहल में पूछा कि कैसे बाघ के आस-पास होने का पता चलता है। इसपर ड्राइवर बोला कि इनकी लोकशन का अब अंदाजा रहता है और अगर बाघ आस-पास ही होता है तो दूसरे जानवर एक अजीब किस्म की आवाज निकालने लगते हैं। इन आवाजों से जानवर दूसरे जानवरों को बाघ के पास होने के बारे में आगाह करते हैं।
अब दिन धीरे-धीरे ढल रहा था और आधा जंगल घूम चुके थे लेकिन हमें कहीं बाघ नहीं दिखा। जंगल के बीच में एक छोटी सी जगह बनाई हुई है जहां जाकर अंदर सफारी करने वाले जीप जाकर रूकते हैं। जीप जैसे ही वहां खड़ी होती है चीं-चीं आवाज करती ढरों पक्षी आकर जीप में बैठ जाते हैं, इन्हें किसी से डर भी नहीं लग रहा था, कू द-कूद कर वह जीप के चारों तरफ खेलने लगी। तभी दो और जीप आकर वहां पर रूकी, उसमें बैठे लोगों के चेहरे बाघ न दिखने की निराशा बता रहे थे। लेकिन हमारे मन में जब भी उम्मीद थी कि शायद अब आगे चलकर हमें कोई बाघ दिख जाए। लेकिन तभी ड्राइवर ने आकर सूचना दी कि बाघ के लोकेशन आज जंगल की तरफ है ही नहीं, बाघ घाटी के पीछे की तरफ चले गए हैं। अब जीप दोबारा जंगल की ओर बढऩे लगी लेकिन कुछ घंटों के बाद हम सब सरिसका से बाहर निकलने वाले थे, सबके चेहरे अब मुरझा गए थे, मन में बस था कि एक बार बाघ दिख जाए, टाइगर रिसर्व में आए और बिना बाघ देखे निकलना बिल्कुल अ'छा नहीं लग रहा था। वापसी के रास्ते में अचानक कुछ तेज-तेज आवाजें आई, ड्राइव ने पूरी स्पीड के साथ जीप को घुमाया और एक बड़े से तालाब के पास जाकर रोक दिया, अचानक मन रोमांच से भर गया, लगा कि शायद बाघ जाने से पहले अपने दर्शन दे ही देगा लेकिन बहुत देर इंतजार करने पर भी निराशा ही मिली।

जानकारी
सरिसका टाइगर रिजर्व राजस्थान के अलवर जिले में पड़ता है। इसे 1955 में वन्य जीव संरक्षण घोषित किया गया और 1978 में इसे टाइगर रिजर्व का स्टेटस दिया गया। सरिसका का जंगल 866 स्क्वेयर किलोमीटर में फैला है। दिल्ली से ये 200 किलो की दूरी में है और जयपुर से 107 किमो है। बड़ी संख्या में लोग यहां घूमने आते हैं, विशेषतौर पर गर्मियों में ज्यादा आते हैं। यूं तो इन दिनों भी जाया जा सकता है लेकिन गर्मियों में बाघ दिखने की संभावना ज्यादा होती है। इस जंगल में बाघ, चीता, चितल, संभार, हिरण, चिंकारा, नील गाय, एंटीलोप, जंगली सूअर के साथ ही पक्षियों की कई प्रजातियां देखने को मिलेंगी। जंगल के अंदर बहुत सारे गांव भी बसे हैं और यहां एक मंदिर भी है। कई पर्यटक सिर्फ इस मंदिर को घूमने के लिए भी यहां आते हैं। यहां तक अपनी गाड़ी में अगर आया जाए तो बहुत अच्छा है। सरिसका तक पहुंचने से पहले रास्ते में बहुत सुंदर नजारे भी देखने को मिलेंगे। वहीं बीच में खाना खाने के लिए ढाबे भी नजर आएंगे, इन ढाबों पर एकदम देसी अंदाज में चारपाई में बैठाकर खाना परोसा जाएगा। बीच में मिडवे भी बने हैं जहां आप चाहें तो रूककर आराम कर सकते हैं।

कैसे करें बुकिंग 
यूं तो सरिसका में पहुंचकर भी वहां पर जीप या कैंटर बुक हो सकते हैं लेकिन छुट्टिïयों के दिनों में यहां बहुत भीड़ बढ़ जाती है, इसके लिए ऑनलाइन बुकिं ग सबसे उपयुक्त होती है। इसमें आप सीधा जाकर अपने मोबाइल में आए मैसेज को दिखाकर अपनी जीप ले सकते हैं। बुकिंग के समय बुकिंग चार्ज ले लिया जाता है और जीप के पैसे ड्र्राइवर को ही देना होता है। यहां सुबह सात बजे से शाम साढे सात बजे तक सफारी होती है। ऑनलाइन बुकिंग में आप अपने मुताबिक समय चुन सकते हैं। ऑनलाइन बुकिंग में सबसे जरूरी और ध्यान रखने वाली बात है कि आप अपना कोई आईडी जरूर लें जो बुकिंग में डाला है और वहां पहुंचने से पहले बुकिंग की डिटेल की कॉपी निकाल लें। जंगल सफारी का मजा जीप पर ज्यादा आएगा क्योंकि कैंटर बड़ा होने के कारण जुगल के खुले रास्तों पर ही चलता है लेकिन जीप आपको हर छोटे बड़े रास्ते पर ले जाएगी।