Friday, April 6, 2012

सुकून का ठिकाना

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महुआ बोस 

जनसत्ता 6 अप्रैल, 2012: शहरों-महानगरों की आपाधापी भरी जिंदगी में लगता है जैसे हमने अपना सुकून बेच दिया है। न अपने लिए वक्त है, न ही अपनों के लिए। इसकी व्यस्तता और चकाचौंध में सब जैसे खोते जा रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि काश, दिमाग में आंकड़े भर देने वाला कोई तार लगाया जा सके, जिसके बाद सब बातें खुद-ब-खुद कंप्यूटर में चली जाएं। पढ़ने-लिखने की चीजें तार से जुड़ जाने के बाद सीधे दिमाग में और दिमाग से सीधे कंप्यूटर में आ जाएंगी। परिवार, बातचीत, शौक- सब कुछ ही स्वचालित हो जाएगा। इससे कम से कम इस बात का अफसोस तो नहीं होगा कि सुकून के सिवा सब कुछ है।
सब कॅरिअर में आगे बढ़ रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, लेकिन पूरे दिन कहीं काम करने के बाद जब घर लौटते हैं तो वहां सुकून नहीं है। घर में बैठ कर परिवार वालों के साथ खाना खाए हुए न जाने कितने दिन हो जाते हैं। कई ऐसे दोस्त हैं जो दूसरे शहरों से आकर यहां रहते हैं और परिवार से मिले महीनों या साल तक यों ही गुजर जाते हैं। अमूमन हर त्योहार में घर वालों के साथ नहीं रह पाने की कसक अक्सर चेहरे पर दिख जाती है। त्योहार तो होता है, लेकिन अपनेपन की कमी स्वाभाविक रूप से खलती है। मेरा खयाल है कि नौकरी, पैसा और शहरी जिंदगी में फंसे सब लोग सुकून तलाशते हैं। सबको जेहनी सुकून चाहिए, लेकिन ‘मेट्रो’ कहे जाने वाले शहरों में रहन-सहन का जो ढांचा, कामकाज की व्यस्तताएं और इन सबके बीच चुपचाप पलता तनाव का माहौल बन चुका है, उसमें यह मिल पाना अब शायद मुमकिन ही नहीं है।
कुछ समय पहले हम एक दिन अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे। भैया पूरे दिन दफ्तर में काम करने के बाद घर आए, हम लोगों से बातचीत की, सबकी खैरियत ली और फिर पास ही सोते हुए अपने बच्चे को प्यार किया। फिर एक लंबी सांस लेते हुए बोले- ‘पूरे दिन के बाद घर आने पर भी बच्चे को खेलते हुए नहीं देख पाता। बहुत मुश्किल से अगर दिन में फोन पर बात होती है तो पापा-पापा करके दो-चार बात करता है। सुबह घर से निकलता हूं तो यह सोता रहता है और रात को घर में आता हूं तब तक सो जाता है। रविवार को ही इससे थोड़ा ठीक से मिल पाता हूं। उस दिन इसकी खुशी और उत्साह का ठिकाना नहीं होता, जैसे 
पूरे हफ्ते पापा से छुट्टी के दिन मिलने का इंतजार करता हो। कभी किसी सप्ताह अगर दफ्तर के काम से कहीं बाहर जाना पड़ता है तो रविवार या कोई छुट्टी का दिन भी नहीं मिल पाता है।’ 
उनकी बातें सुन एक अजीब-सी सिहरन हुई। पैसा कमाने और जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए हम लोग जिंदगी के कितने खास पलों को रोज खो रहे हैं। उनकी बातों से भी लगा कि जैसे सब कुछ तो अच्छा कर रहे हैं, लेकिन जो बच्चे के बड़े होने के सबसे खूबसूरत पल हैं, उसे महसूस कर पाने से वंचित हैं।
एक दिन और कुछ ऐसा ही लगा मुझे, जब मैं एक छोटी-सी घटना के बारे में कुछ लिखना चाह रही थी। लेकिन घड़ी के साथ चलने वाली जिंदगी में थोड़ा-सा वक्त खुद को नहीं दे पाई और उस घटना को कागज पर उतारने के बारे में सिर्फ सोचती रह गई। हुआ कुछ यों था कि उस सुबह दफ्तर जाते हुए जब आॅटो नोएडा में एक चौराहे की लाल बत्ती पर रुका तो एक छोटे बच्चे ने पास आकर हाथ फैला दिया। एक तरह से उससे पीछा छुड़ाने की गरज से मैंने एक रुपए का सिक्का उसे दे दिया। उस सिक्के को मुट्ठी में बंद करके उसके चेहरे पर जो मुस्कराहट आई, वह मुझे आज भी याद है। मानो, वह एक रुपया उसकी जिंदगी बदल देगा, या फिर उसने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे कार्यक्रम में पंद्रहवें सवाल का जवाब दे दिया हो। उस सिक्के को देने से पहले मुझे अंदाजा भी नहीं था कि वह उसे इतनी खुशी दे जाएगा।
उस बच्चे की यह वही मुस्कान थी जो मैं कागज पर उतार लेना चाहती थी, यह जानते हुए भी कि वह सिक्का उसकी जिंदगी में रत्ती भर भी बदलाव करने में मददगार साबित नहीं हो सकता था। लेकिन अब तक नाकाम रही। दरअसल, हम लोग इस जिंदगी में ऐसे उलझ गए हैं, जिसमें कुछ पल भी सुकून के नहीं हैं। सब कुछ होते हुए भी मानसिक राहत नहीं है। कह सकते हैं कि इसे पाने के लिए हम न जाने कहां-कहां और कैसे दौड़ते-भागते फिरते हैं। लेकिन हमें कहां पता होता है कि वह कहां मिलेगा! नतीजा, एक अजीब-सी झुंझलाहट और खीझ...। सवाल है कि आखिर कहां है सुकून का वह ठिकाना। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह हमारे आसपास ही छिपा है, लेकिन हम खुद में इतने सिमटे हैं या चकाचौंध भरी रोशनी में इतने गुम हैं कि उसे हासिल नहीं कर पाते!

2 comments:

  1. हमारे भीतर ही है सुकून............
    मगर हमे कहाँ फुर्सत खुद को भी जानने की....

    बहुत अच्छा लेख महुआ.

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