Monday, March 21, 2016

यादों की खिड़की



एक पुराने घर में यादों की खिड़की खोली है. धूल की परतों के बीच भी कभी यहाँ रहने वाले बच्चों का बचपन झाँक रहा है. घर का हर कोना एक कहानी बता रहा है, किसी के प्यार की तो किसी की शरारतों की!
ब्लैक एंड व्हाइट तसवीरें सबकी रंगों से भरी ज़िन्दगी बयां कर रही है. एहसासों में लिपटे पुराने ख़तों में आज भी ताज़गी है. शेल्फ पर रखा तबला मानो कह रहा है कि कभी इसकी ताल से पूरा घर गूंजता था.
खिलौने धूल से सने कोने में पड़े हैं. कमरों में सन्नाटा है. रसोई सूनी पड़ी है. आँगन के झूले में अब सिर्फ चिड़िया झूलती है, लेकिन सालों से बंद इस घर में सफ़ेद गुलाब से पौधा अब भी लदा हुआ है. यहाँ की यादों की हर खिड़की-दरवाज़े को खोल दिया है, जिससे इसकी महक इसके अपनों तक पहुंचे!

तरह-तरह की आवाजों से आज़ाद सुबह

यहां की सुबह शहरों की सुबह से बिल्कुल अलग है. तरह-तरह की आवाजों से आज़ाद, खुली और ताज़गी से भरी हुई. यहां आवाजें हैं हवा के साथ पत्तों के सरकने की, आवाजें चहकती चिड़ि‍यों की, फूलों में मंडराते भंवरों की. इन दिनों यहां एक और हल्की आवाज और सुनाई दे रही है, वो आवाज़ है: महुआ की! 
भोर की ख़ामोशी में महुआ के पेड़ के पास से थोड़ी-थोड़ी देर में एक धीमी-सी आवाज़ सुनाई पड़ती है. महुआ के पके फलों की पेड़ से गिरने की आवाज़. सूरज की रोशनी के साथ ही पेड़ के नीचे दिखती है पीले रंग की एक चादर. खूबसूरत, छोटे, गोल-गोल पीले फलों की चादर, खुशबू से भरे हुए मीठे फल. 
पेड़ों से सभी पत्तियां झड़ चुकी हैं, फल पक कर टपक रहे हैं और लाल-लाल छोटी पत्तियां नए मौसम के आने की ख़बर दे रही हैं!
#PenchTigerReserve
#KohkaWildernessCamp
#JungleLife

Sunday, January 4, 2015

रेलवे स्टेशन पर एक लफंगे को सबक सिखाने वाली पत्रकार की डायरी

symbolic image
गहराती शाम के साथ ठंड बढ़ने लगी थी. हमारी ट्रेन करीब पांच घंटे लेट निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर पहुंची. 19 घंटे के थकाऊ सफर के बाद मैं और मेरा परिवार सामान लेकर नीचे उतरा. जितनी भीड़ प्लेटफॉर्म पर थी, उसे देखकर लग रहा था कि जैसे सब दिल्ली आने के लिए इसी ट्रेन से उतरे हैं.
हम लोग धीर-धीरे बाहर की ओर बढ़ने लगे. सामान ज्यादा था, इसलिए मैंने मां और मौसी को स्टेशन के बाहर सीढ़ियों के पास खड़ा कर दिया और एक-एक कर सामान लाकर रखने लगी. हमारे यहां रेलवे स्टेशनों पर सामान लेकर बाहर तक आना किसी जंग से कम नहीं है. मैं आखिरी बैग को अपने कंधों में लादकर बाहर आ ही रही थी कि एक शख्स मेरे बिल्कुल करीब से मुझे छूते हुए गुजरा. इतना ही नहीं, उसकी हिम्मत देखिए कि वह वह थोड़ा आगे बढ़कर पीछे मुड़ा और मुझे देखकर मुस्कुराने लगा.
मेरा दिमाग झन्ना गया और पल भर में ही तरह-तरह के ख्याल जेहन में आए. उसके चेहरे पर कामयाबी की मुस्कान मेरे दिल में चुभ रही थी. वक्त बहुत कम था. मैं फुर्ती से आगे बढ़ी और उसकी कलाई पकड़कर भीड़ से अलग फुटपाथ पर ले गई और उसके हाथ मरोड़कर पीछे से पकड़ लिया, ताकि वह भाग न सके. मैंने उसे एक जोरदार थप्पड़ दिया तो वह चौंक गया. मेरा मन अभी भरा नहीं था. मैंने अपनी पांचों उंगलियां मिला-मिलाकर उसके चेहरे पर पूरी ताकत से कई बार छापीं
. पता नहीं इतनी ताकत उसकी मुस्कान से पैदा हुई कुंठा से मेरे भीतर आई थी या इसके पीछे कोलकाता का पौष्टिक भोजन था. लेकिन मैं उसे अब भी बेतहाशा पीटे जा रही थी. मैं उसे घसीटकर बाहर टैक्सी स्टैंड की तरफ ले आई,  ताकि पुलिस वाला नजर आए तो उसके हवाले कर सकूं. लेकिन एक भी वर्दी वाला वहां नहीं दिखा.
अब आलम यूं था कि मैं पैदल चलते हुए पुलिस वाले को ढूंढ रही थी और साथ के साथ उस शोहदे को पीटे भी जा रही थी. कभी अपने हाथों से, कभी अपनी वॉटर बोटल से. उसके मुंह से कोई माफी नहीं निकली. बल्कि मार खाते हुए भी वह मेरा हाथ रोकते हुए बोला, 'पता है किसे मार रही है? झांसी से हूं मैं.' अब सुनना इतना था कि मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. मैंने पकड़ा उसका कॉलर और थप्पड़ लगा लगाकर उसका मुंह लाल कर दिया.
आप हैरान होंगे यह जानकर कि स्टेशन के बाहर पीठ पर बैग लिए जब मैं उसे पीट रही थी तो मेरे इर्द-गिर्द तमाशबीनों का एक घेरा बना हुआ था. वे अच्छी-खासी संख्या में थे, जैसे किसी फिल्म की शूटिंग देखने निकले हों. उस भीड़  में कॉलेज के छात्र थे, ऑटो-टैक्सी ड्राइवर थे और परिवार वाले लोग भी थे. मैं चिल्लाते हुए उनसे पुलिस को फोन करने को कह रही थी, लेकिन उस भीड़ में कोई भी ऐसा नहीं था, जिसने ऐसा किया.
अब क्लाइमेक्स भी सुन लीजिए. एक टैक्सी ड्राइवर भाईसाहब आए और बोले, 'छोड़ो न मैडम, बहुत मार लिया आपने इसे, जाने दो.' और उसने उस लफंगे को धक्का देते हुए तमाशबीनों के घेरे से बाहर निकाल दिया. कपड़े झाड़ता हुआ वह अपने रस्ते बढ़ गया. मैं अपना बैग और फोन चेक कर ही रही थी कि कुछ लड़कों की आवाज मेरे कान में पड़ी, 'भाई क्या कूटा है लड़की ने, कसम से मार-मार कर मुंह सूजा दिया.'

Thursday, May 29, 2014

तमन्‍ना तुम अब कहां हो: एक खूबसूरत लालच की तरह है इस किताब को पढ़ना

किताब: तमन्‍ना तुम अब कहां हो 
लेखक: निधीश त्‍यागी
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्‍स
कीमत: 150 रुपये

देर रात पार्टी से लौटते वक्‍त उसकी कार के रेडियो में वह गाना बजने लगा. बाहर बारिश हो रही थी. ऐसा ही कोई सीन, या इससे मिलता-जुलता, आपकी जिंदगी में भी हुआ ही होगा. आज भी बारिश और पसंदीदा गाने की जुगलबंदी हो जाए तो कोई अपना याद आने लगता है. निधीश त्‍यागी ने किताब 'तमन्‍ना तुम अब कहां हो' में हमारी जिंदगी के कुछ ऐसे ही सच्चे पलों को उकेरा है. किताब रिश्तों के बारे में बात करती है और प्‍यार, वफा, धोखा, टूटे सपने, अधूरी ख्‍वाहिशों, खामोशी, संवाद और चीख के कुछ टुकड़ों को समेटे हुए है. कुछ जगह पर कुछ सच इतने कड़वे कहे गए हैं कि पढ़कर आप असहज हो जाएंगे. हो सकता है कि अपनी जिंदगी का कोई हिस्सा भी आपको इस किताब में मिल जाए.

'तमन्‍ना तुम अब कहां हो' में अगर आप तमन्‍ना नाम की किसी नायिका को ढूंढेंगे तो नहीं मिलेगी. क्‍योंकि यह जिंदगी की कई 'तमन्‍नाओं' की कहानी है. अच्छी बात यह है कि छोटे-छोटे टुकड़ों में बात कही गई, जिससे इसे पढ़ना और भी आसान हो गया है. एक कहानी पढ़ने के बाद एक लालच अगली कहानी के लिए आपके मन में पैदा होता है जो आखिरी पन्ने पर जाकर भी खत्म नहीं होता. ये कहानियां आपको यादों की बोसीदा गलियों में घुमाएंगी, लंबे रिलेशनशिप के बाद होने वाले ब्रेकअप-सी टीस देंगी, दिल के हजार टुकड़े करेगी और सीने पर चोट करेंगी. इसकी कई कहानियां आपको अपने आस-पास की लगने लगेंगी.

जिंदगी के तनाव को लेखक ने इतने सरल अंदाज में बयां किया है कि दस शब्‍दों में एक कड़वी सच्‍चाई शुरू होकर खत्‍म हो जाती है. एक जगह वह लिखते हैं-
उसने अपने मोबाइल पर टाइप किया तलाक़...तलाक़...तलाक़ और ड्राफ्ट में सेव करके रख लिया.

एक जगह लिखा है,
यह लगभग तयशदा है कि मेरी बीवी मुझसे प्‍यार नहीं करती. 

ये पंक्तियां अपने आप में कुछ बदसूरत लेकिन सच्ची कहानियां समेटे हुए हैं. सबकी व्याख्या आप अपने हिसाब से कर सकते हैं. कहीं-कहीं कुछ-कुछ एब्स्ट्रैक्ट भी लग सकता है. किताब छोटे-छोटे चैप्‍टर में बांटकर लिखी गई है. एक तीन लाइन का चैप्‍टर भी है, जिसका शीर्षक है- 'उसने मुझे बास्‍टर्ड कहा!'
'उसने मुझे बास्‍टर्ड कहा! 
'बास्‍टर्ड!'
'क्‍या??' 
'बास्‍टर्ड!!' 
और दोनों हंसने लगे. उसके पेट में यकायक सारी तितलियां उड़ने लगीं. उसकी हथेलियां उन तितलियों की पुकार सुनती रहीं. 
बहुत रोज़ बाद तक.

अगर बात भाषा की करें तो इसमें एक नया जायका, नया रंग देखने को मिलेगा. शुद्ध हिंदी नहीं मिलेगी. आपको समझ आने वाली भाषा है. यह बात एक कहानी के इस शीर्षक से ही साफ हो जाती है- 'वे जोरों से हंसते भी नहीं थे. बड़े से बड़े मजाक पर स्‍माइली :-) टाइप करके काम चल जाता था.

इस किताब में हर कहानी का शीर्षक भी अपने आप में एक कहानी है. ऐसी कहानी जो हमारी और आपकी जिंदगी से जुड़ी हुई मालूम होगी. जैसे इस शीर्षक को ही ले लीजिए- 'जहां तुम खड़ी हो, दुनिया वहीं ख़त्‍म होती है और शुरू भी'

किताब के एक चैप्‍टर में महज दो-दो या तीन-तीन लाइन में दिल तोड़ने वाली 69 कहानियां एक साथ है.

* साल भर पहले मैंने अबॉर्शन करवाया था. अब भी लगता है कि दुनिया में मुझसे बुरा कोई नहीं है.
* मेरा पति मेरी जिंदगी का प्‍यार है. पर क़सम से मैं उसके चेहरे पर हमेशा मुझसे शादी करने और बच्‍चे करने का पछतावा देखती हूं. मैं मर जाती हूं.

 'तमन्‍ना तुम अब कहां हो' की कहानियां अनुभवों का सफर है, इसके अहसास और संवाद दिल की गहराई तक उतरते हैं. कई कहानियां शुरू होती है, बढ़ती है, लेकिन सुखांत तक नहीं पहुंचती है. कहीं ये बेतरतीब हैं तो कहीं अधूरी. कई प्रेम कहानियां तो सपनों के कश्‍मकश में ही उलझ जाती है तो किसी कहानी में किसी के लिए शुरुआती आकर्षण मजहब के पेच में उलझकर अंजाम तक नहीं पहुंच पाता. सभी एहसासों से रूबरू होने के लिए आपको 188 पन्‍नों की ये किताब पढ़नी होगी.

क्‍यों पढ़ें
अगर आपने कभी प्‍यार किया है या इसके बारे में सोचा है, धोखा खाया है, या कभी दोस्‍ती और प्‍यार के बीच में अटक गए हैं तो इसे जरूर पढ़ें.

क्‍यों ना पढ़ें 
अगर प्‍यार-व्‍यार और रिश्‍तों-एहसासों की बातें बोर करती हों तो पढ़ने की जहमत न करें.

Tuesday, August 7, 2012

कहां गया वो रविवार?


छुट्टïी का दिन था, देर से सोकर उठना, सारे काम समय बीत जाने के बाद करना, सुस्सताना, बस यही सब चलता है पूरे दिन। इस छुट्टïी भी कुछ यही सब सब चल रहा था, हाथ में चाय का कप लिए बालकोनी में खड़ी हुई, घर के सामने बने पार्क में एक दो बच्चे ही खेलते नजर आए। वहीं बैठकर चाय पीने लगी और दुनिया की खबर के लिए अखबार पर नजर फेरी। तभी फोन बजा, दूसरी तरफ मेरी बहन थी, बातचीत हुई और मैने उन्हें अगले दिन यानि रविवार को घर आने कहा। लेकिन वो बोलीं नहीं आ पाऊंगी कल मिष्टïी (उनकी बेटी) का मैथ्स क्लास है, इस क्लास में उसका अभी एडमिशन करवाया है, इसमें सवाल जल्दी हल करने की तकनीक बताई जाती है, इससे बच्चे को गणित से डर नहीं लगता और उसकी एकाग्रता भी बढ़ती है। मै उनकी बात चुपचाप सुन रही थी। फिर मैने कहा आज आ जाओ कल चली जाना दोपहर तक, उसकी क्लास तो शाम को है। लेकिन फिर उसने जवाब में ना कहा और बोली उसकी म्यूजिक क्लास है और उसमें छुट्टïी नहीं करवा सकती, म्यूजिक की परीक्षा भी पास में है, इसके अलावा अगले सप्ताह स्कूल में म्यूजिक की प्रतियोगिता है, उसकी भी तैयारी करनी है। इस तरह थोड़ी देर बातचीत हुई फिर मैने फोन रख दिया। 
जेहन में एक ही ख्याल आ रहा था बच्चों का बचपन कार्टून और खेल से इतर पढ़ाई, प्रतियोगिता, हॉबी क्लास तक रह गया है। क्या इन्हें हमारे बचपन की तरह रविवार का इंतजार नहीं होता होगा? क्या दिन हुआ करते थे बचपन के और क्या रविवार हुआ करता था। रविवार तो आज भी आता है लेकिन दीदी के मुंह से उनकी बेटी का रविवार सुनकर अचानक ही अपने बचपन के रविवार के दिन याद आने लगे। पूरे सप्ताह टीवी में आने वाला धारावाहिक श्रीकृष्ण, रामायण देखने का इंतजार होता था, कॉमेडी धारावाहिकों में देख भाई देख जैसे धारावाहिक हंसाते थे। सुबह रविवार का खास नाश्ता होता था, पापा के साथ बगीचे की सफाई होती थी, वो फूलों की जानकारी देते थे और हम उत्सुकता से वो बातें सुनते थे। यही नहीं आस पड़ोस के घर के आंगन में बच्चों के साथ विभिन्न खेलों में पूरा दिन निकलता था। 
इस तरह खेलते हुए दिन चढ़ता और मां के बुलाने पर दोपहर का खाना होता लेकिन किसी तरह खाना खत्म करके फिर बाहर जाने की हलचल मन में होती थी। धूप में जाने की मनाही होने पर घर पर ही सबको बुलाकर एक कमरे में लूडो, कैरम खेला जाता था। यही नहीं पास की किताबों की दुकान से चंपक, नंदन, चाचा चौधरी कॉमिक्स लाकर छुट्टïी का एक दिन गुजर जाता था। शाम को फिर अपने साथ के बच्चों के साथ बाहर खेलने जाना, साइकिल चलाना और घर के बनाए एक नियम के मुताबिक स्ट्रीट लाइट जलने से पहले घर घुसने की बात दिमाग में रखना। वो बात हमेशा याद रहती कि स्ट्रीट लाइट जलने तक घर लौटना है, उससे देर हुई तो डांट पड़ती। 
क्या खास होते थे वो रविवार, क्या खास होते थे वो दिन। आज के बच्चों का बचपन वक्त की गति के साथ तेज चल रहा है। बचपन के उन खेलों की जगह उनकी विभिन्न विषयों की ट्यूशन क्लास ने ले ली है, बाहर जाकर खेलने की बजाए वो घर पर अपने प्रोजेक्ट पूरे करते हैं। पढ़ाई और प्रतियोगिताओं का दबाव हमेशा उनके साथ चलता है। हर चीज में बेस्ट होने की कोशिश में शायद कुछ खो रहे हैं ये बच्चे। क्या आज के बच्चों को रविवार का इंतजार होता होगा? या फिर उन्हें रविवार के नाम पर अपनी मैथ्स क्लास या हॉबी क्लास का टाइमटेबल याद आता है और खेल के नाम पर कंप्यूटर के गेम...

Tuesday, May 29, 2012

कब टूटेंगी मजहबी दीवार!


लड़की बहुत अच्छी है लेकिन हिंदू है, लड़का बहुत अच्छा है लेकिन मुसलमान है, हम चाहकर भी इस शादी को मंजूरी नहीं दे सकते समाज क्या कहेगा। लोगों को तो बनाने के लिए बातें मिल जाएंगी, हम कैसे समाज का सामना करेंगे, क्या कहेंगे लोगों को...ये संवाद मेरे बेहद करीबी दोस्तों के अभिभावकों के हैं जिन्हें घर में अपनी पसंद जाहिर करने के बाद ये सुनने को मिली। दोनों एक-दूसरे से बेहद प्यार करते थे लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी घरवालों की रजा नहीं ले पाए। बात बहुत छोटी या समाज के दृष्टिïकोण से शायद बहुत बड़ी थी और शायद इसलिए दोंनों को एकसाथ नहीं रह पाए। ऐसे किस्से आज के नहीं है बल्कि सदियों से चलते आ रहे हैं। जहां मजहब के आगे इंसान झुकता है या फिर यह कह सकते हैं कि झुकने को मजबूर है। और मजहब की इस खाई को गहरी करने में समाज अपनी अहम भूमिका निभा रहा है।
खैर दोनों ने जी जान से कोशिश की लेकिन आखिर में परिवार के दबाव के आगे झुक गए। दोनों ने परिवार वालों की बात मानी और अपने लिए अलग-अलग रास्ते चुन लिए। उनके साथ उन रास्तों पर चलने वाले लोगों को भी उनके द्वारा किए समझौते का खामियाजा भुगतना पड़ा। उस समझौते में शायद दोनों जिंदगी को खो चुके थे, परिवारों को खुश रखने की दोनों की कोशिश ने उन्हें अंदर से खोखला कर दिया था।
खैर इस तरह मजहबी दीवार के कारण एक और रिश्ता टूटा, पर क्या बात यहीं खत्म हो जाती है? मेरा दिल-दिमाग तो न जाने कब तक या कह सकते हैं आज भी इसमें उलझा हुआ है, अजीब कश्मकश चलती रहती है। दो लोगों की शादी और दो परिवारों में दोस्ती होने या न होने में, समाज की इतनी महत्वपूर्ण भूमिका मेरे दिमाग को झकझोर कर रख दिया। तर्कपूर्ण भी नहीं लगती बात, अगर सुलझे नजरिए से देखा जाए तो मेरी नजर में एक बात निकलकर सामने आती है कि अगर ऊपरवाले की बनाई दुनिया में वो धर्म इतनी तवज्जो देते और धर्म को इंसान और इंसानियत से ऊपर का दर्जा देते तो शायद सभी धर्र्मों के लिए सूरज, चांद, हवा, पानी सभी प्राकृतिक चीज अलग-अलग तैयार करते। यही नहीं खून का रंग भी लाल न होकर भिन्न-भिन्न धर्र्मों के लिए भिन्न होता। लेकिन ऐसा नहीं है, पूरी दुनिया में सबके खून का रंग एक है, सबके लिए एक ही सूरज-चांद निकलता है, सब प्यास बुझाने के लिए पानी ही पीते हैं, खाना सभी के लिए अनिवार्य है, तो सवाल ये उठता है कि जब ऊपरवाले ने इंसानों में कोई फर्क नहीं किया तो हम कौन होते हैं ये फर्क करने वाले? एक-दूसरे धर्म को दुश्मनी के नजर से देखने वाले? एक-दूसरे पर अंगुली उठाने वाले? और दो लोग जो अपनी मर्जी से, प्यार से एक-दूसरे के साथ रहना चाहते हैं उन्हें अलग करने वाले? ये सब भी समाज के लिए, क्या है ये समाज? कौन है जिसने समाज होने का ठेका उठाया है?
बहुत जबाव ढूंढऩे के बाद इतना तो समझ आया है कि ऊपरवाले ने तो नहीं लेकिन इंसानों के बीच इस अंतर की आग को समय-समय पर धर्म के ठेकेदारों ने हवा दी है, उस हवा ने इस आग को कभी बुझने ही नहीं दिया। वक्त बदलता है समय बदलता है लेकिन लोगों के दिमाग में धर्म के नाम पर कूड़ा-कचरा भरने से इस तरह के लोग बाज नहीं आते, आंखों में ऐसी पट्टïी चढ़ा देते हैं कि किसी को कुछ गलत लगता ही नहीं है। ऐसा नहीं है धर्म को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठते हैं या फिर धर्म की लड़ाई के चक्कर में लोग नहीं पिसते लेकिन कुछ दिन चर्चा गर्म रहने के बाद सब ठंडी हो जाती है। इतिहास उठाकर भी देखा जाए तो इसी धर्म की लड़ाई के फेर में न जाने क्या-क्या हुआ है, लोग बंटे, देश बंटा, कितना कुछ तहस-नहस हुआ। लेकिन लोगों के आंख पर चढ़ी पट्टïी किसी भी समय नहीं खुली, सभी लोग समाज (समाज पता नहीं कौन है) के डर से समाज के बनाए नियमों पर बिना तर्क दिए काम करते आ रहे हैं।
कभी कोई सामने आकर ये सवाल नहीं पूछता कि अगर दो लोगों को साथ रहने के लिए समान मजहब का प्रमाणपत्र चाहिए तो क्यों एक डॉक्टर को भी उसी मरीज का इलाज करना चाहिए जो उसके मजहब का हो, शिक्षक को भी 35 छात्रों की कक्षा में छांटकर अपने मजहब के बच्चों को अलग करना चाहिए, या फिर छोटा-बड़ा सामान खरीदते समय भी हमें देखना चाहिए कि सामान बेचने वाला अपने मजहब का है या नहीं या फिर जिस खेत में सब्जियां फल लगे हैं वो किसान और वो जमीन का मालिक अपने मजहब का है या नहीं? जब अपने रोजमर्रा की जिंदगी में एक सुईं से लेकर अपने दफ्तर के बॉस में हम मजहब नहीं देखते तो सिर्फ शादी पर आकर बात समाज के बंधन में क्यों बंधकर रह जाती है? कौन है ये समाज और क्या करना चाहता है ये? धर्म चाहे कोई भी हो उसकी शिक्षा एक ही है, हर संस्कृति खूबसूरत है और कुछ नया सिखाती है तो अच्छी बातें समझने के लिए और नया कुछ सीखने के लिए कब से पाबंधियां होने लगी? क्यूं नहीं हम इन मजहबी दीवारों को तोड़कर एक सुलझी दुनिया बना सकते हैं!

Monday, May 7, 2012

एक सॉरी ने तोड़ा रिश्ता..


नई दिल्ली। 1960 में बनी मुगले आजम में जब सलीम (दिलीप कुमार ) अनारकली (मधुबाला) से हसीन भावनाओं का इजहार कर रहे थे उस वक्त असल जिंदगी में दोनों के बीच कड़वाहट घुल चुकी थी। रिश्ता इतना बिखरा था कि दोनों एक दूसरे से बात तक करना पसंद नहीं करते थे। उस दौर की सबसे खूबसूरत प्रेम कहानी बड़े पर्दे पर जब सबके सामने आई तब दिलीप कुमार-मधुबाला का रिश्ता टूट चुका था। एक सॉरी ने अभिनेता दिलीप कुमार की जिंदगी का रूख बदला था। दोनों का रिश्ता महज एक सॉरी की वजह से हमेशा के लिए टूट गया। उस दिन के बाद से दोनों ने एक-दूसरे की तरफ मुड़कर नहीं देखा।
दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को बॉलीवुड की चुनिंदा कहानियों में गिना जाता है। इनकी प्रेम कहानी किसी फिल्म रोमांटिक स्क्रिप्‍ट की तरह शुरू हुई और खत्म भी हो गई। दिलीप कुमार की जिंदगी में जब मधुबाला आई तो वह महज 17 वर्ष की थीं। लेकिन मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान को उनका संबंध पसंद नहीं था। वो दिलीप कुमार को भी पसंद नहीं करते थे और हमेशा ही दोनों के रिश्ते के विरोध में थे। दोनों सिर्फ शूटिंग के सेट पर एक-दूसरे से मिलते थे, यही नहीं दोनों ही अपनी मुलाकातों को उनके पिता से छुपा कर रखते थे। इस तरह दोनों का रिश्ता कई साल तक चला।
बी.आर चोपड़ा की फिल्म नया दौर को लेकर हुआ कोर्ट केस प्रेस और पब्लिक में खूब उछला। इसी कोर्ट केस की वजह से 1957 में एक दूसरे से अलग हो गए। इस फिल्म के लिए 40 दिन की भोपाल की शूटिंग थी, इस फिल्म के लिए दोनों को ही साइनिंग अमाउंट दे दिया गया था। लेकिन हमेशा की तरह मधुबाला के पिता को शूटिंग के लिए उनका बाहर जाना पसंद नहीं आया। मधुबाला ने भी अपने पिता की बात मानी और फिलम छोड़ दी। इसके लिए बी.आर.चोपड़ा ने अताउल्लाह खान पर कांट्रैक्ट पूरा न करने का केस कर दिया। केस के दौरान दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते को भी बहुत उछाला गया और केस के आखिरी ट्रायल के दौरान दिलीप कुमार ने कहा कि वो मधुबाला से मरते दम तक प्यार करते रहेंगे। कोर्ट में दिलीप साहब ने बी.आर.चोपड़ा की तरफ से बयान दिया। मामला खत्म हुआ लेकिन दोनों के रिश्ते में दरार आ गई।
इस केस के बाद भी दोनों ने फिल्म मुगले आजम की लेकिन उस दौरान दोनों का रिश्त इतना खराब था कि दिलीप कुमार मधुबाला से बात तक नहीं करना चाहते थे। दोनों अनारकली और सलीम का किरदार निभा रहे थे पर दोनों के बीच मोहब्बत जा रही थी।
उस केस के खत्म होने के बाद दिलीप कुमार ने मधुबाला से कहा था कि वो फिल्में छोड़ दें और उनके साथ शादी कर लें। लेकिन अपने पिता के आत्मसम्मान को लेकर परेशान मधुबाला ने भी गुस्से में उनसे कहा कि वह उनसे तभी शादी करेंगी जब वो उनके पिता से माफी मांगेंगे। लेकिन दिलीप कुमार को ये बाद नागवार गुजरी, उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। दिलीप के सॉरी के लिए इंकार को सुनकर मधुबाला ने भी उनसे शादी न करने का फैसला सुनाया और उनकी जिंदगी से चली गर्ई। बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुई, इसके बाद मधुबाला ने दिलीप साहब के ऊपर गुस्से और जिद में किशोर कुमार से शादी कर ली।
1950-60 के दशक में दिलीप कुमार के सितारे बुलंदी पर थे। मधुबाला से रिश्ता टूटने के बाद 1966 में उन्होंने ने सायरा बानो से शादी की। उस वक्त दिलीप साहब 44 वर्ष और सायरा बानो 22 वर्ष की थीं। महज 22 वर्ष की उम्र की लड़की के साथ शादी ने बॉलीवुड में मचा दिया था। दिलीप कुमार का नाम कामिनी कौशल, वैजयंती माला बाली के साथ भी जुड़ा था। उन्होंने आसमां से भी शादी की थी लेकिन वो रिश्ता ज्यादा दिन चला नहीं। दिलीप साहब को 1993 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया और 1995 में दादा साहब फालके पुरस्कार से नवाजा गया।
- महुआ बोस