Tuesday, August 7, 2012

कहां गया वो रविवार?


छुट्टïी का दिन था, देर से सोकर उठना, सारे काम समय बीत जाने के बाद करना, सुस्सताना, बस यही सब चलता है पूरे दिन। इस छुट्टïी भी कुछ यही सब सब चल रहा था, हाथ में चाय का कप लिए बालकोनी में खड़ी हुई, घर के सामने बने पार्क में एक दो बच्चे ही खेलते नजर आए। वहीं बैठकर चाय पीने लगी और दुनिया की खबर के लिए अखबार पर नजर फेरी। तभी फोन बजा, दूसरी तरफ मेरी बहन थी, बातचीत हुई और मैने उन्हें अगले दिन यानि रविवार को घर आने कहा। लेकिन वो बोलीं नहीं आ पाऊंगी कल मिष्टïी (उनकी बेटी) का मैथ्स क्लास है, इस क्लास में उसका अभी एडमिशन करवाया है, इसमें सवाल जल्दी हल करने की तकनीक बताई जाती है, इससे बच्चे को गणित से डर नहीं लगता और उसकी एकाग्रता भी बढ़ती है। मै उनकी बात चुपचाप सुन रही थी। फिर मैने कहा आज आ जाओ कल चली जाना दोपहर तक, उसकी क्लास तो शाम को है। लेकिन फिर उसने जवाब में ना कहा और बोली उसकी म्यूजिक क्लास है और उसमें छुट्टïी नहीं करवा सकती, म्यूजिक की परीक्षा भी पास में है, इसके अलावा अगले सप्ताह स्कूल में म्यूजिक की प्रतियोगिता है, उसकी भी तैयारी करनी है। इस तरह थोड़ी देर बातचीत हुई फिर मैने फोन रख दिया। 
जेहन में एक ही ख्याल आ रहा था बच्चों का बचपन कार्टून और खेल से इतर पढ़ाई, प्रतियोगिता, हॉबी क्लास तक रह गया है। क्या इन्हें हमारे बचपन की तरह रविवार का इंतजार नहीं होता होगा? क्या दिन हुआ करते थे बचपन के और क्या रविवार हुआ करता था। रविवार तो आज भी आता है लेकिन दीदी के मुंह से उनकी बेटी का रविवार सुनकर अचानक ही अपने बचपन के रविवार के दिन याद आने लगे। पूरे सप्ताह टीवी में आने वाला धारावाहिक श्रीकृष्ण, रामायण देखने का इंतजार होता था, कॉमेडी धारावाहिकों में देख भाई देख जैसे धारावाहिक हंसाते थे। सुबह रविवार का खास नाश्ता होता था, पापा के साथ बगीचे की सफाई होती थी, वो फूलों की जानकारी देते थे और हम उत्सुकता से वो बातें सुनते थे। यही नहीं आस पड़ोस के घर के आंगन में बच्चों के साथ विभिन्न खेलों में पूरा दिन निकलता था। 
इस तरह खेलते हुए दिन चढ़ता और मां के बुलाने पर दोपहर का खाना होता लेकिन किसी तरह खाना खत्म करके फिर बाहर जाने की हलचल मन में होती थी। धूप में जाने की मनाही होने पर घर पर ही सबको बुलाकर एक कमरे में लूडो, कैरम खेला जाता था। यही नहीं पास की किताबों की दुकान से चंपक, नंदन, चाचा चौधरी कॉमिक्स लाकर छुट्टïी का एक दिन गुजर जाता था। शाम को फिर अपने साथ के बच्चों के साथ बाहर खेलने जाना, साइकिल चलाना और घर के बनाए एक नियम के मुताबिक स्ट्रीट लाइट जलने से पहले घर घुसने की बात दिमाग में रखना। वो बात हमेशा याद रहती कि स्ट्रीट लाइट जलने तक घर लौटना है, उससे देर हुई तो डांट पड़ती। 
क्या खास होते थे वो रविवार, क्या खास होते थे वो दिन। आज के बच्चों का बचपन वक्त की गति के साथ तेज चल रहा है। बचपन के उन खेलों की जगह उनकी विभिन्न विषयों की ट्यूशन क्लास ने ले ली है, बाहर जाकर खेलने की बजाए वो घर पर अपने प्रोजेक्ट पूरे करते हैं। पढ़ाई और प्रतियोगिताओं का दबाव हमेशा उनके साथ चलता है। हर चीज में बेस्ट होने की कोशिश में शायद कुछ खो रहे हैं ये बच्चे। क्या आज के बच्चों को रविवार का इंतजार होता होगा? या फिर उन्हें रविवार के नाम पर अपनी मैथ्स क्लास या हॉबी क्लास का टाइमटेबल याद आता है और खेल के नाम पर कंप्यूटर के गेम...

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